बिन पानी हमसे रूठ गये
जंगल झाड़ अब रहे नही
बिन लहू के तन ये सूख गये
है कंक्रीट के जंगल अब
गर्मी में सुलगती सड़के है
राह में चलते चलते अब
थक से गये हम,,,रुक से गये हम
था दूर दूर पसरा सन्नाटा,,,
जाने बरगद पीपल कहा छुट गये ,,,,
जंगल झाड़ अब रहे नही
बिन लहू के तन ये सूख गये
नई आशाएं है
नए सपने है
लेकिन सब पराये है ,,,,,,ना अपने है
स्वार्थ की क्या परिभाषा है
अगर जानने की अभिलाषा है
मिल जाओ एक दिन हमको तुम
सब कुछ तुमको बतलायेंगे
सब कुछ तो अब लूट लिया
ना पानी है,,,ना पेड़ बचे ,,,
कृत्रिम से हम ,,,कृत्रिम हो तुम
जैसे भारत माँ को भी हम लूट लिए
जंगल झाड़ अब रहे नही
बिन लहू के तन ये सूख गये
अब नद नारे सब सूख गये,
बिन पानी हमसे रूठ गये
जंगल झाड़ अब रहे नही
बिन लहू के तन ये सूख गये

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