छलूँ कुछ सपनो को मैं छलूँ कुछ अपनों को मैं Kavita house 8:29 AM Kavita Sangrah No comments छलूँ कुछ सपनो को मैं छलूँ कुछ अपनों को मैं फिर कैसा दर्द होता है कुछ दर्द दूं अपनों को मैं जिन्होंने है छला मुझको हर राह पर हर सांस पर स्तब्ध सा रह जाता था मैं दर्द की इक आह को पाकर यही सब सोच कर व्यथित कुछ मन भी मेरा है ठगा जो अपनों ने मुझको नयन विक्षिप्त है मेरे छलूँ कुछ अपनों को मैं भी लेकिन ये दिल सिसकता है और रह रह के कहता है नही दे सकता हु मैं किसी को दर्दे दिल फिर हां जमी ही मिल गयी मुझको नही है इच्छा अब कोई धरा ही मेरा अम्बर है छला है मुझको तो सबने लेकिन मैं दे नही सकता छलूँ अब किसको मैं जला जो मैं हु हर पल Share This: Facebook Twitter Google+ Stumble Digg Email ThisBlogThis!Share to XShare to Facebook
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