जिंदगी किस और जा रही है पता ही नही चल रहा ना ही आदि का पता है ना अंत का फिर भी कुछ जानी अनजानी राहों पर चले जा रहे है एक अनजान पथिक की तरह जिसमे ना आज का पता है ना कल क्या होगा हर तरफ प्रतिस्पर्धा वो भी स्वार्थ से सनी हुई जिसमे सिर्फ और सिर्फ मैं ही मैं है और दूसरा कुछ भी नही कभी कभी चलते चलते इतने तन्हा इतने अकेले होते है जबकि चारो तरफ भीड़ होती है जहां किसिसको न देखने का ना सुनने का समय होता है ऐसी भीड़ भरी तन्हाई में खुद को निःसहाय सा अकेला पाता हु और उस परिस्थिति में अपने आप को संभालना कभी कभी अत्यंत ही कठिन होता है और यही बात कहे उन्काहे शब्दों के साथ जुबान पर आ जाती है की
हमारी जिन्दगी किस ओर जा रही है ?????????????????
हमारी जिन्दगी किस ओर जा रही है ?????????????????


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