छलूँ कुछ सपनो को मैं
छलूँ कुछ अपनों को मैं
फिर कैसा दर्द होता है
कुछ दर्द दूं अपनों को मैं
जिन्होंने है छला मुझको
हर राह पर हर सांस पर
स्तब्ध सा रह जाता था मैं
दर्द की इक आह को पाकर
यही सब सोच कर
व्यथित कुछ मन भी मेरा है
ठगा जो अपनों ने मुझको
नयन विक्षिप्त है मेरे
छलूँ कुछ अपनों को मैं भी
लेकिन ये दिल सिसकता है
और रह रह के कहता है
नही दे सकता हु मैं
किसी को दर्दे दिल फिर
हां जमी ही मिल गयी मुझको
नही है इच्छा अब कोई
धरा ही मेरा अम्बर है
छला है मुझको तो सबने
लेकिन मैं दे नही सकता
छलूँ अब किसको मैं
जला जो मैं हु हर पल
छलूँ कुछ अपनों को मैं
फिर कैसा दर्द होता है
कुछ दर्द दूं अपनों को मैं
जिन्होंने है छला मुझको
हर राह पर हर सांस पर
स्तब्ध सा रह जाता था मैं
दर्द की इक आह को पाकर
यही सब सोच कर
व्यथित कुछ मन भी मेरा है
ठगा जो अपनों ने मुझको
नयन विक्षिप्त है मेरे
छलूँ कुछ अपनों को मैं भी
लेकिन ये दिल सिसकता है
और रह रह के कहता है
नही दे सकता हु मैं
किसी को दर्दे दिल फिर
हां जमी ही मिल गयी मुझको
नही है इच्छा अब कोई
धरा ही मेरा अम्बर है
छला है मुझको तो सबने
लेकिन मैं दे नही सकता
छलूँ अब किसको मैं
जला जो मैं हु हर पल


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